होली पर मूर्ति दहन की प्रथा की शुरूआत जबलपुर से हुई थी
होली को लेकर लोगों के बीच हर्षोल्लास का माहौल होता है। हर बार होलिका दहन पर यह संदेश दिया जाता है कि यह पर्व बुराई पर अच्छाई की जीत का उदाहरण है। हर बार होलिका को जलाया जाता है और प्रहलाद बच जाता है। होली पर्व की अपनी अलग की पहचान है।

होली को लेकर लोगों के बीच हर्षोल्लास का माहौल होता है। हर बार होलिका दहन पर यह संदेश दिया जाता है कि यह पर्व बुराई पर अच्छाई की जीत का उदाहरण है। हर बार होलिका को जलाया जाता है और प्रहलाद बच जाता है। होली पर्व की अपनी अलग की पहचान है। तरह-तरह के पकवान और रंगों से सजा यह त्यौहार सिर्फ देश में ही नहीं मनाया जाता, बल्कि विदेश में रह रहे सनातनी भी इसे पूरे उत्साह के साथ मनाते हैं। होलिका दहन के अगले दिन रंगों और फूलों की होली खेली जाती है। ऐसा कहा जाता है कि होली से पूर्व होलिका मूर्ति का दहन करने की शुरूआत जबलपुर से हुई है। इस बात के बारे में कम ही लोग जानते हैं कि मूर्ति दहन की शुरूआत नर्मदा तट से हुई थी। दशकों से चली आ रही यह परंपरा अब पूरे विश्व तक पहुंच गई है।
लकड़ी और कंडों की होली जलाने वाले भी मूर्ति की स्थापना करने लगे हैं। जिसमें प्रहलाद को बचाने की धार्मिक परंपरा का निर्वाह आज भी किया जाता है। अंधेरदेव क्षेत्र में कुछ मूर्तिकारों के साथ मूर्तिकार कुंदन प्रजापति ने पहली बार वर्ष 1952 में होलिका की मूर्ति तैयार की थी। इसके बाद अन्य मूर्तिकारों ने इस पहल को अपनाया और फिर शहर में होलिका की मूर्ति जलाने की शुरूआत हुई। इसके साथ ही भक्त प्रहलाद की मूर्ति भी बनाई जाने लगी। धार्मिक कथा के अनुसार होलिका आग में जल जाती है और प्रहलाद बच जाता है। इस बात को ध्यान में रखते हुए होलिका दहन के दौरान प्रहलाद को होलिका की मूर्ति से हटा दिया जाता है।
ऐसी है कथा
पौराणिक कथा के अनुसार सतयुग में हिरण्यकश्यप के पुत्र प्रहलाद, भगवान विष्णु के परम भक्त थे, लेकिन हिरण्यकश्यप भगवान श्रीहरि से अत्यंत घृणा करते था। जब सभी उपाय करने के बाद भी प्रहलाद ने विष्णु जी की भक्ति करना नहीं छोड़ा, तब इस पर हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका के साथ एक योजना बनाई। होलिका को ब्रह्मा जी से यह वरदान प्राप्त था कि अग्नि उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाएगी। इसी के चलते वह भक्त प्रहलाद को गोद में उठाकर अग्नि में बैठ गई। तब भगवान विष्णु ने होलिका को भस्म कर दिया था और भक्त प्रहलाद श्रीहरि की कृपा से बच गए थे। तभी से होलिका दहन के रूप में इस दिन को मनाया जाता है। हिंदू पंचांग के अनुसार वर्ष के अंतिम माह फाल्गुन की पूर्णिमा को होली का त्यौहार मनाया जाता है। कहते हैं कि यह सबसे प्राचीम उत्सव में से एक है। हर काल में इस उत्सव की परंपरा और रंग बदलते रहे हैं।
भगवान श्रीकृष्ण ने शुरू किया फाग उत्सव
प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ.आनंद सिंह राणा के अनुसार त्रेतायुग के शुरूआत में विष्णु ने धूलि वंदन किया था। इसकी याद में धुलेंडी मनाई जाती है। होलिका दहन के बाद रंग उत्सव मनाने की परंपरा भगवान कृष्ण के काल से शुरू हुई। तभी से इसका नाम फगवाह हो गया, क्योंकि यह फागुन माह में आती है। कृष्ण ने राधा पर रंग डाला था। इसी की याद में रंग पंचमी मनाई जाती है। श्रीकृष्ण ने ही होली के त्यौहार में रंग को जोड़ा था। पूर्णिमा को आर्य लोग जी की बलियों की आहूति यज्ञ में देकर अग्निहोत्र का आरंभ करते हैं, कर्मकांड में इसे यकावण यज्ञ का नाम दिया गया है। बसंत में सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण में आ जाता है। इसलिए होली के पर्व को गर्वतरांभ भी कहा गया है। होली का आगमन इस बात का संदेश देता है कि अब चारों तरफ बसंत ऋतु का सुवास फैलने वाला है।